परमाणु हथियारों के उन्मूलन पर यूएन वार्ता पर छाया गहरा अंधेरा
रॉडने रेनॉल्ड्स
वाशिंगटन डीसी (आईडीएन) – 193 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र महासभा – मार्च और जून के महीनों में – दो प्रमुख सत्र आयोजित करने जा रही है जिसे दुनिया भर में परमाणु हथियारों के उन्मूलन की दिशा में एक ‘करो या मरो’ प्रयास होने की उम्मीद की जाती है।
“क्या 2017 एक ऐसा वर्ष होगा जिसमें परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध लगाये जाते देखा जाएगा या क्या इस लक्ष्य को हासिल करने के प्रयास “फर्जी ख़बर” में तब्दील हो जाएंगे, यह देखने वाली बात होगी?” यह बात निरस्त्रीकरण, शस्त्र नियंत्रण एवं अप्रसार कार्यक्रम के निदेशक, तारिक रऊफ ने स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसआईपीआरआई) में संशय के साथ कही।
जो काली छाया आगामी महासभा के सत्रों पर मंडरा रही है, वह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की प्रभावशाली शख्सियत की होगी – जिनकी ट्रिगर दबाने वाली उंगली खतरनाक तरीके से 7,000 से अधिक परमाणु हथियारों के करीब है, और परमाणु निरस्त्रीकरण पर जिनके विचार अप्रसार से लेकर मौजूदा हथियारों को मजबूती प्रदान करने तक लगातार असंगत दिखाई देते हैं।
27-31 मार्च और 15 जून-7 जुलाई को आयोजित होने वाले दो सत्रों का प्राथमिक उद्देश्य “परमाणु हथियारों को निषेध करने के लिए एक कानूनी रूप से बाध्यकारी साधन तैयार करने पर बातचीत करना है जो इनके पूर्ण उन्मूलन की दिशा में अग्रसर हो।”
लेकिन विशेष रूप से अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस सहित कुछ प्रमुख परमाणु शक्तियों की ओर से अपेक्षित सख्त विरोध पर विचार करते हुए यह कितना यथार्थवादी और व्यावहारिक है, जो कथित तौर पर परदे के पीछे से सम्मेलन को विफल करने या गैर-परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच अव्यवस्था पैदा करने के लिए पैरवी कर रहे हैं?
आईडीएन के साथ एक साक्षात्कार में, रऊफ ने कहा कि सभी संकेतों से यही पता चलता मिलता है कि वार्ताएं भाग लेने वाले गैर-परमाणु-शक्ति संपन्न देशों के बीच गहराई तक समाए मतभेदों से भरपूर होंगी।
उन्होंने आगाह करते हुए कहा “आशंका है भाग लेने वाले नाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) और संबद्ध गैर-परमाणु-शक्ति संपन्न देश अपने परमाणु-शक्ति संपन्न आकाओं की ओर से हस्तक्षेप करेंगे और विचार-विमर्श में जटिलताएं पैदा करने का काम करेंगे।”
“एक अन्य दोष ऐसे गैर-परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच हो सकता है जो परमाणु हथियारों को निषेध करने की एक त्वरित संक्षिप्त मानक निर्धारित करने वाली संधि चाहते हैं और जो सत्यापन के प्रावधानों के साथ एक अधिक विस्तृत संधि को पसंद करते हैं”, यह बात सत्यापन एवं सुरक्षा नीति समन्वय के पूर्व प्रमुख, रऊफ ने वियना में अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) में कही।
उन्होंने कहा कि सिविल सोसायटी की भागीदारी एक परमाणु हथियार संधि पर बहुपक्षीय वार्ताओं में पहली बार एक प्रमुख विशेषता हो सकती है, और कुछ सदस्य देशों ने पहले से सिविल सोसायटी के प्रभाव या भागीदारी में कटौती के संकेत दिए हैं।
लॉयर्स कमिटी ऑन न्युक्लियर पॉलिसी (एलएनसीपी) के कार्यकारी निदेशक, जॉन बरोज ने आईडीएन को बताया कि संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में 16 फरवरी को आयोजित संगठनात्मक बैठक के नतीजे को देखते हुए, जिसमें 100 से अधिक देशों ने भाग लिया था, परमाणु हथियारों के उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त करने वाली परमाणु हथियार निषेध संधि – एक प्रतिबंधात्मक संधि की वार्ताओं की दिशा में काफी तेजी आयी है।
उन्होंने कहा कि यह प्रक्रिया परमाणु निरस्त्रीकरण पर सद्भावपूर्ण वार्ता करने के परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) के दायित्व और संयुक्त राष्ट्र महासभा के सर्वप्रथम प्रस्तावों के अनुरूप परमाणु-शक्ति संपन्न देशों द्वारा परमाणु अप्रसार की दिशा में तेजी से और निर्णायक तरीके से आगे बढ़ने में विफलता के साथ-साथ अधिकाँश गैर-परमाणु शक्ति संपन्न देशों की निराशा से उत्पन्न होती है।
उन्होंने कहा कि कई सालों तक परमाणु हथियार रखने वाले देशों अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने इस प्रक्रिया के प्रति साफ़ तौर पर अपना विरोध जाहिर किया है। ना तो वे और ना ही अमेरिका के साथ सैन्य गठजोड़ में शामिल अधिकाँश देश इसमें हिस्सा लेंगे।
“हालांकि एक दिलचस्प प्रगति में चीन और भारत दोनों संगठनात्मक बैठक में मौजूद थे, और जाहिर तौर वे इस वार्ता में भाग लेंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि वे परमाणु निरस्त्रीकरण की बहुपक्षीय वार्ता के लिए अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करना चाहते हैं, हालांकि ऐसी संभावना नहीं है कि वे प्रारंभ में ही प्रतिबंधात्मक संधि में शामिल हो जाएंगे।”
नीदरलैंड भी बैठक में मौजूद था, और प्रेस रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि जापान बैठक में नहीं होने के बावजूद अभी भी यह तय करने में जुटा है कि इसमें भाग लिया जाए या नहीं। यह बात इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ़ लॉयर्स अगेन्स्ट न्युक्लियर आर्म्स (आईएएलएएनए) के यूएन कार्यालय के एक अन्य निदेशक, बरोज ने कही।
रऊफ ने आईडीएन को बताया कि गैर-परमाणु शक्ति संपन्न देशों के एक विशाल बहुमत द्वारा डाले गए इस दबाव ने न केवल परमाणु हथियार रखने वाले देशों बल्कि गैर-परमाणु शक्ति संपन्न देशों की श्रेणियों के भीतर भी काफी मतभेदों को उजागर कर दिया है।
नाटो और अमेरिका प्रशांत के मित्र देश और रूस जैसे परमाणु शक्ति संपन्न देशों के सहयोगियों ने परमाणु हथियारों पर रोक लगाने वाली किसी भी बहुपक्षीय वार्ता का जोरदार विरोध किया है, जबकि एक अनिर्धारित समयसीमा के साथ एक अपरिभाषित “कदम-दर-कदम” या चरणबद्ध दृष्टिकोण के माध्यम से परिमाणु हथियार मुक्त विश्व का लक्ष्य हासिल करने के प्रति दिखावटी प्रेम का प्रदर्शन किया है।
तीन अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों (ओस्लो 2013, नयारित 2014, और वियना 2015) में परमाणु हथियारों के अस्तित्व और एक परमाणु विस्फोटक के किसी भी विस्फोट के भयावह मानवीय परिणामों से मानवता के लिए उत्पन्न होने वाले व्यापक खतरे की गहरी चिंता पर दुनिया का ध्यान आकर्षित किया गया था।
इन जोखिमों को देखते हुए, अधिकाँश गैर-परमाणु शक्ति संपन्न देशों ने एक परमाणु हथियार मुक्त विश्व का लक्ष्य हासिल करने की दिशा में सभी देशों द्वारा तत्काल कार्रवाई किए जाने आवश्यकता पर जोर दिया और कहा कि परमाणु निरस्त्रीकरण की दिशा में आज की तारीख तक प्रगति बहुत धीमी गति से प्रगति हुई है।
रऊफ ने कहा कि इन देशों ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि एनपीटी परमाणु शक्ति संपन्न देशों को निरस्त्रीकरण के लिए बाध्य करती है लेकिन संधि के लगभग 50 वर्षों में इस दायित्व को पूरा नहीं किया गया और इसके पूरा होने के कोई संकेत दिखाई नहीं दे रहे हैं।
इन देशों ने यह भी ध्यान दिलाया कि परमाणु हथियारों के निषेध और उन्मूलन के संबंध में एक कानूनी खाई थी, क्योंकि जैविक हथियार कन्वेंशन और रासायनिक हथियार कन्वेंशन की तर्ज पर कोई परमाणु निरस्त्रीकरण संधि नहीं की गयी थी, जिसने क्रमश: जैविक और रासायनिक हथियारों को निषिद्ध किया था और उनके पूर्ण उन्मूलन को अनिवार्य बनाया था।
तदनुसार, इन देशों ने एक परमाणु हथियार मुक्त विश्व की खोज के लिए चार अलग-अलग दृष्टिकोणों के एक मेनू का प्रस्ताव किया था: जिसमें एक व्यापक परमाणु हथियार कन्वेंशन; एक परमाणु हथियार प्रतिबंध संधि; एक ढांचागत समझौता; और मूलभूत अंगों पर आधारित एक प्रगतिशील दृष्टिकोण शामिल है।
दूसरी ओर कुछ नाटो देशों ने यह जवाब दिया था कि ऐसी कोई कानूनी खाई नहीं थी और यह कि एनपीटी ने परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रयास में एक आवश्यक नींव प्रदान की है।
उन्होंने जोर देकर कहा कि परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए किसी भी प्रभावी उपाय की खोज में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा वातावरण, वर्तमान भू-राजनीतिक परिस्थिति और मौजूदा सुरक्षा सिद्धांतों में परमाणु हथियारों की भूमिका को ध्यान में रखा जाना चाहिए; और इस प्रकार एक परमाणु हथियार प्रतिबंध संधि उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में नहीं था।
इन देशों ने यह भी कहा है कि एक परमाणु हथियार प्रतिबंध संधि एनपीटी के कार्यान्वयन के संबंध में भ्रम की स्थिति पैदा करेगा और एनपीटी के परमाणु निरस्त्रीकरण दायित्वों की पूर्ति को जटिल बना देगा।
रऊफ ने कहा “वास्तव में एक परमाणु हथियार प्रतिबंध संधि से एनपीटी पर कोई असर नहीं पड़ेगा।” ऐसे देश जो एनपीटी के पक्षों में शामिल हैं, अभी भी इससे बंधे होंगे और इसे पूरी तरह लागू करने के लिए बाध्य होंगे।
एक परमाणु प्रतिबंध संधि एनपीटी से परे जा सकती है और परमाणु हथियार रखने तथा परमाणु हथियारों के इस्तेमाल को रोक सकती है (उदाहरण के लिए, बेल्जियम, इटली, नीदरलैंड और तुर्की जैसे अन्य देशों के अममले में, जो नाटो के तत्वावधान में अमेरिकी परमाणु हथियारों का संचालन करते हैं; या जैसा कि पहले जापान और दक्षिण कोरिया में किया गया था)।
रऊफ ने कहा कि ठीक 1963 की आंशिक-परीक्षण-प्रतिबंधक संधि की तरह जो वायुमंडल में, बाह्य अंतरिक्ष में और पानी के नीचे परमाणु परीक्षण संबंधी विस्फोटों को प्रतिबंधित करती है, इसका 1996 की व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि से कोई विरोध नहीं है जो सभी परमाणु परीक्षण संबंधी विस्फोटों पर प्रतिबंध लगाती है; इसी प्रकार 1968 की एनपीटी का किसी परमाणु हथियार प्रतिबंध संधि के साथ कोई विरोध नहीं हो सकता है।
बरोज ने कहा कि वर्तमान परिकल्पना के अनुसार प्रतिबंधक संधि परमाणु हथियार रखने और उनका इस्तेमाल करने को निषेध करेगी, लेकिन परमाणु हथियारों के सत्यापित विघटन और एक परमाणु हथियार मुक्त शासन जैसे मामलों के संबंध में विस्तृत प्रावधानों को शामिल नहीं करेगी।
विचार यह है कि परमाणु शक्ति संपन्न देशों की भागीदारी के बिना उनको सीधे प्रभावित करने वाले मुद्दों पर बातचीत करने का कोई मतलब नहीं निकलता है; इन मुद्दों का संतोषजनक ढंग से समाधान करने के लिए उनकी विशेषज्ञता, विचारों और प्रतिबद्धता की जरूरत होगी।
इस दृष्टिकोण में एक प्रतिबंधक संधि परमाणु हथियारों का इस्तेमाल नहीं करने संबंधी मौजूदा मानदंडों को सुदृढ़ करेगी – जिसमें युद्ध के संचालन को नियंत्रित करने वाले अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के साथ उपयोग की असंगति को संहिताबद्ध किया जाएगा। उन्होंने आगे कहा कि इसके अलावा यह एनपीटी और क्षेत्रीय परमाणु हथियार मुक्त क्षेत्रों में परमाणु हथियारों के गैर-अधिग्रहण संबंधी मौजूदा मानकों को सुदृढ़ बनाएगी।
बरोज ने कहा कि एक प्रतिबंधक संधि परमाणु हथियार मुक्त क्षेत्र की स्थापना करने वाली संधियों को मजबूती प्रदान करेगी और एक अर्थ में एकजुट भी करेगी। उन संधियों में सबसे पहले, लेटलोको की संधि का नाम आता हैं जो लैटिन अमेरिकी और कैरिबियाई क्षेत्र का निर्धारण करती है जिसने 14 फरवरी को मैक्सिको सिटी में अपनी 50वीं वर्षगांठ मनाई।
“एक प्रतिबंधक संधि का महत्व सबसे पहले राजनीतिक, एक शक्तिशाली और निश्चित बयान हो सकता है कि परमाणु हथियार के संबंध में यथास्थिति अस्वीकार्य है, कि परमाणु हथियारों को फिर कभी इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, और यह कि एनपीटी में तथा यूएन के प्रसंग में उल्लेखनीय रूप से 1978 में निरस्त्रीकरण पर महासभा के विशेष सत्र में किये गए परमाणु निरस्त्रीकरण के वादों को पूरा करने में आगे कोई विलंब नहीं होना चाहिए।”
लेकिन संधि की सामग्री के आधार पर, उन्होंने ध्यान दिलाया कि इसके कुछ विशिष्ट वैधानिक परिणाम भी होंगे।
बरोज ने कहा, उदाहरण के लिए, परमाणु हथियारों के वित्तपोषण को निषेध किया जा सकता है जो परमाणु हथियार निर्माता कंपनियों में निवेश को काफी प्रभावित कर सकता है, और प्रतिबंधक संधि में शामिल होने वाले देशों के लिए, संधि के बाहर के देशों द्वारा परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की तैयारी के साथ किसी भी तरह का सहयोग या समन्वय नहीं करने की आवश्यकता उत्पन्न हो सकती है। [आईडीएन-इनडेप्थन्यूज – 25 फ़रवरी, 2017]
फोटो: अमेरिका के ट्राइडेंट एसएलबीएम (पनडुब्बी से चलने वाली बैलिस्टिक मिसाइल) के एक निष्क्रिय परीक्षण का मोंटाज, अनेक स्वतंत्र रूप से लक्ष्य साधने योग्य पुनः-प्रवेश वाहनों का जलमग्न स्थिति से टर्मिनल तक, या पुनः-प्रवेश चरण। क्रेडिट: विकिपीडिया कॉमन्स।
आईडीएन इंटरनेशनल प्रेस सिंडिकेट की प्रमुख एजेंसी है।